वियोग....
दिल का मानस हंस क्षुब्ध है,
मग्न हुईं हर ओर व्यथाएँ,
मन मे सहसा गूँज उठी हैं,
कुछ प्रतिध्वनियाँ बिना बुलाये!
तरुणाई भी नीरस जैसे,
परछाई अब नही ठहरती,
बिखर गए हैं स्याही,पन्ने,
कलम नही चलती अब वैसे!
इस वियोग झंझावातों में,
अपने इस एकाकीपन पर,
करता हूँ हर रोज निछावर,
आँसू, आह,नींद,रातो में!
कभी कभी सो भी जाता हूँ,
सपनों के मनसूबे लेकर,
पर आँखों मे भर जाती हैं,
आहत तेरी आँसू बनकर!
प्रिय तेरे ही आस-प्यास में,
घर से तो हर रोज निकलता,
जाने यह कैसी लाचारी,
मिलती है हर बार विफलता!
छोटी छोटी सरल बहर से,
अपने इस तुतलाते स्वर से,
मिलो कभी तो तुम्हे सुनाए,
आँसू, कसक,टीस से निर्मित,वो अनसूय कथाएँ!
दिल का मानस हंस क्षुब्ध है,
मग्न हुई हर ओर व्यथाएं!
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